दुनिया भर में दुनिया भर में मुख्यधारा या व्यवस्थित धर्म (हिंदू, मुस्लिम ,सिख, ईसाई )के अनुयायियों का आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था पर दबदबा है. इस व्यवस्था में वे उन्हें प्राथमिकता देते हैं, जो उनका धर्म अपना लेते हैं. जैसे, उनके शिक्षण संस्थानों में उनका धर्म मानने वालों को प्रमुखता मिलती है. उनकी इस बाजारवादी व्यवस्था में, जिसमें नौकरियों का आधार किताबी ज्ञान है, प्रकृतिपूजक आदिवासियों का लगातार पिछड़ते जाना और अपने प्राकृतिक संसाधनों को गंवाना भी तय है यह क्रिया परस्पर एक दूसरे के विलोमक्रम में है| |
इस स्थिति में व्यवस्थित धर्म के किसी धर्म को अपनाने वाले आदिवासी आर्थिक रूप से ज्यादा समृद्ध दिखने लगते हैं और इसका असर प्रकृतिपूजक आदिवासी समाज पर होने लगता है.
" क्या अब ऐसा हो रहा है, अगर हाँ तो तुरंत इसपर गौर करने की जरुरत है |"
हम मानते हैं कि व्यवस्थित धर्मों की शुरुआत का श्रेय आर्यों को है. और उनकी व्यवस्था में आदिवासियों के अलिखित ज्ञान, पुरखों का विस्डम और प्रकृति की शक्तियों को समझने की हमारी ताकत पूरी तरह ख़त्म कर दी जाती है.
ये हमेसा से ही होता आ रहा है लिखित ज्ञान चाहें वो किसी तरह की भी हो, प्राथिमिकता उसे दी जाती रही है , यह युग दर युग चलता आ रहा है और चलता रहेगा आगे भी |
आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषाओं, संस्कृति से दूर कर देने के कारण वे गांव-घर के बुजुर्गों के देशज ज्ञान की बातें समझ नहीं पाते. एक साजिश के तहत आदिवासियों की भावी पीढ़ियों को उनकी संस्कृति, उनकी परंपरा, उनके पीछे छिपे दार्शनिक पहलुओं को समझने से वंचित कर दिया गया है.
चाहें वो जानबूझकर किसी मकसद के तहत या फिर हमारे द्वारा विकास की दिशा में रुख करना दोनों हो सकते है इसके कारण , पर हमें अपनी प्राथमिकताएं समझनी होगी और उसपर अमल करना होगा | "यह तय हमें करना होगा आज की पीढ़ी को करना होगा "|
ravi biruly 4 yrs
संगठित धर्म एक तरह से हममें institutions atticates भर देता है, और बाद में हम औरों से यह उम्मीद करते हैं कि सामने वाला हमसे अच्छे से पेश आए, कुछ हद तक यह काम करता हैं मगर ज्यादातर मामलों में जब यही बातें अहंकार का रूप ले तो बातें बिगड़ जाती हैं !
बगैर खुद को जाने, अपने रिचुअल-कल्चर-कायदे को समझे हमारी कोई पहचान नहीं !!