आज सुबह उठते ही माया ने कुछ लकड़ियां बटोरकर चूल्हे में डाल दिया और उसमे आग लगा दी , आदिवासी परिवार में जन्मी 8 वर्ष की थी वह पर उसकी हरकतें वयस्क हो गयीं थी | माँ- बाप के गुजरने के बाद वही तो थी अपने लिए सबकुछ | उसने चावल का घोल बनाकर तवे पर डाल दिया था "पीठा " बना रही थी वो शायद | मैं दूर बैठा, सुबह देख रहा था उसे अपनी चाय की टफरी पर से ,साफ़ नज़र आ रही थी वो मुझे | रोज मै उसे देखता उसके छोटे से कच्चे मकान में अकेली सारी चीजें जतन करते हुए , आज कुछ अलग ही व्याकुल सी लग रही थी वह , मासूमियत कम थी आज उसके चेहरे पर भला होती भी क्यू न , मासूमियत बेच कर चावल का आटा जो कल्लू सेठ राशानवाले से खरीदना होता था उसे |
शिक्षा की भूख , ख़ुशी की भूख , चैन- सुकून की भूख उसने सबको मारकर दिल के किसी कोने में बचपन के कफ़न से _ गहराई में दफ़्न जो कर दिया था , अब् जो बची है वो बस पेट की भूख है जिसे वह मार नहीं सकी थीं | एक मुनासिब कोना तलाश ऊँची सांस भरते हुए बने गर्म "पीठा " को हाथ में थामे व्याकुल मृग शावक की तरह उसने देखा और उसे खाते चली गयी | न वो दाएं देख रही थी न बाएं , डर था उसे की कोई उसकी भूख को पहचान न लें..... फिर से मासूमियत बेचकर कल के लिए खाना जुटाएगी पता नहीं फिर कब मिले , पिछले दिन से उसके पास कुछ नहीं था खाने को...
न जाने आज ऐसी कितनी ही माया होंगी जिनके बारे में सोचकर ही मन पसीज सा जाता हैं। पूरी दुनिया पूरी दुनिया पिछले डेढ़ सालों से आर्थिक मंदी के प्रकोप से ऐसी डगमागाई कि विश्व भर में भूखे पेट सोने वाले परिवारों की संख्या में 3 करोड़ नये परिवार जुड़ गये। उनकी थाली मतलब आधी से भी ज्यादा खाली भूख मुक्त बचपन , मिड डे मील , सब पढ़े सब बढे ये सारी योजनायें इस कोरोनाकाल में धरी की धरी रह गयी है | भूख, गरीबी , लाचारी, बेबसी एक आदिवासी व्यक्ति की परछाई सी लगती है चाहकर भी दूर नहीं होती, होगी भी तो काली रात (मौत) आने पर या कहें तो ये सिक्के के दो पहलू हैं। भारत के किसी कोने में आदिवासी युवती का भूख से मर जाना या किसी भूख से बेहाल किसी आदिवासी युवक द्वारा राशन चुराते समय पकड़े जाने पर मार दिया जाना , आजकल आम सी हो गयी है | दोष किसे दें अभी सरकार को , खुद को , परिस्थिति को ? पता नहीं पर हम आदिवासी कुदरत की आगोश में समटे उसकी आँगन में पलने बढ़ने वाले हम इतने मजबूर कैसे हो गए है? प्रकृति और उसके संसाधनों से इतने समृद्ध हूँ आज भी दुनिया के लिए जंगली , अनुशासनहीन , असभ्य आज भी है "इसे नाकारा नहीं जा सकता "| हम कुछ तो है , यह तो बिलकुल ही नहीं इससे तो बढ़कर है "हम आदिवासी है " इसकी परिभाषा की जरुरत नहीं अपने में यह एक बड़ा समंदर समेटे हुई है और हमें इसपर गर्व है | बस हमें अपनी मासूमियत बेचने की जरुरत नहीं और न जरुरत है अपने शिक्षा , न ही सुख और न ही चैन सुकून की भूख को मारने की |
vivek painkra 4 yrs
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